आलेख

आदिवासियों को पारंपरिक हुनर से जोडऩे की जरूरत : अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर

आज विश्व आदिवासी दिवस है। आदिवासी, जैसा कि उनके नाम से पता चलता है, उपमहाद्वीप के शुरुआती निवासी हैं और वर्तमान की तुलना में वे पूर्व में बहुत बड़े क्षेत्रों में रहते थे। बड़ा सवाल यह है कि हम वास्तव में भारत के आदिवासियों के बारे में कितना जानते हैं? क्या हमें उनके बारे में जानने की जरूरत है? आदिवासियों का व्यवसाय खेतों में काम करने, मछली पकडऩे और वन उपज के संग्रह से भिन्न होता है। ज्यादातर अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर होते हैं और उनमें से 10 फीसद से भी कम अपनी जरूरतों के लिए ही शिकार करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में, आदिवासी दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते हैं। आदिवासियों को अक्सर जंगलों का संरक्षक कहा जाता है।

आज जो स्थिति आदिवासियों की है, उसके जिम्मेदार कुछ हम हैं तो कुछ वह स्वयं। हमने उन्हें नौकरियों की योजनाओं और पैसे का लालच देकर बेवजह ही उनमें हीनता की भावना भर दी है। अपनी दयनीय हालत के लिए वह इसलिए जिम्मेदार हैं कि वे नौकरियों के चक्कर में अपने पारंपरिक धंधे को छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। ऐसे में हमें अपने जीवन के लिए उपयोगी वस्तुओं को अन्य देशों से मंगवाना पड़ रहा है। आदिवासियों की स्थिति आज इतनी खराब है कि वे पेट भरने अथवा अपना घर चलाने के लिए अपने ही बच्चों को बेच दे रहे हैं। मात्र 8-10 वर्ष की उम्र वाली बच्चियों को काम करने के लिए दूसरे राज्यों में भेजना भी उनकी मजबूरियों में शुमार है। वहां ऐसी बच्चियों के साथ होने वाली घटनाएं अखबारों की सुर्खियां बनती हैं। केंद्र और राज्य सरकारें प्रतिवर्ष कई हजारों करोड़ का बजट आवंटित करती हैं। यह आवंटन सभी दलितों और आदिवासियों के लिए मातृत्व लाभ और बुनियादी आय सुरक्षा सहित सार्वभौमिक बुनियादी स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच की गारंटी देता है, पर लाभ कितना और किसको मिला है? दलित मानवाधिकारों पर राष्ट्रीय अभियान (एनसीडीएचआर) के अनुसार 15 से 34 आयु वर्ग में दलित और आदिवासी समुदायों की युवा आबादी 35 और 23.8 फीसद है। ये युवा कम कौशल योग्यता के साथ ही अत्यधिक गरीबी में रहते हैं। वे भारत में असंगठित कामकाजी क्षेत्र का बड़ा हिस्सा हैं और देश के 92 फीसद कार्यबल का गठन करते हैं, फिर भी रोजमर्रा की वस्तुओं तक उनकी पहुंच नहीं है। आज भी कई गांवों में बिजली, पानी और सड़क तक नहीं है और बिना इलाज के ही आदिवासी मौत को प्राप्त हो रहे हैं। वे भूत-प्रेत के नाम पर छोटे बच्चों के शरीर को गर्म लोहे की छड़ से दगवाते हैं। भोपों के पास जाकर शारीरिक बीमारी का इलाज करवा रहे हैं।

सबसे बड़ा संकट तो यह आ गया है कि आदिवासी समाज के कुछ लोग बहकावे में आकर अलग राज्य बनाने की मांग करने लगे हैं। उन्हें पता ही नहीं है कि मूलाधार से अलग होकर क्या कोई अपना विकास कर सकता है। मूलाधार के बिना विकास इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि विकास वह साधन है, जो किसी एक समाज के पास नहीं हो सकता है। जब कोई एक देश अपनी शक्ति पर ही पूर्ण विकसित नहीं हो सकता है तो फिर आदिवासी अलग होकर कैसे विकसित हो सकते हैं। आज भी देखें तो देश में 60-70 जिले ऐसे हैं जहां आदिवासियों की बहुत अधिक जनसंख्या है। पंच से लेकर सांसद तक आदिवासी हैं फिर भी आदिवासियों का भला नहीं हुआ। वे जहां थे, वहीं हैं।

एक सुझाव है कि सरकार जो बजट, योजनाएं आदि इन आदिवासियों के लिए बनाती हैं, अगर उस बजट से उनके पारंपरिक हुनर का उत्थान किया जाए तो कायाकल्प होते देर नहीं लगेगी। एक ऐसी यूनिवर्सिटी बने जहां डिग्री के आधार पर नहीं, अनुभव और काम के आधार पर उन्हें प्रोत्साहित किया जाए। वहां उन्हें खेती करना, वन संरक्षण, जल संरक्षण और पशुपालन के अभ्यास के साथ वीडियोग्राफी, तकनीकी दक्षता और जनता के दैनिक उपयोग में काम आने वाली गतिविधियों का प्रशिक्षण दिया जाए। जब कौशल संवर्धन होगा तो उनकी सोच, रहन-सहन अपने आप ही बदल जाएगा। वर्तमान में देखा जाए तो आदिवासियों का निवास नदी किनारे, पहाड़ या जंगल में है, इसलिए वह इनका संरक्षण भी अच्छे से कर सकते हैं। सरकार नदी आदि के संरक्षण पर जो पैसा खर्च कर रही है, वह भी कम होगा। आज बहुत से आदिवासी कहीं आंदोलन करते हैं तो उन्हें यह पता ही नहीं होता कि आंदोलन क्यों कर रहे हैं। यह सब बातें सरकारी आंकड़ों या सर्वे में मिले या नहीं मिलें, पर मेरे पैदल विहार के दौरान यह सच्चाई सामने देखने को मिली है। उनकी मूलभूत सुविधाओं की जरूरतों का भी उनके बीच जाकर संवाद करने से पता चलेगा।

आज आदिवासियों को शिक्षा से अधिक उन्हें काम सिखाने और उनके पारंपरिक व्यापार से जोडऩे की जरूरत है। आज भी कई आदिवासी क्षेत्रों में स्कूल हैं, पर वहां शिक्षकों की पर्याप्त उपलब्धता नहीं है। कहीं-कहीं तो मात्र मिड डे मील या सरकारी योजनाओं के लाभ के लिए बच्चे स्कूल जा रहे हैं। रोटी, कपड़े और घर की शिक्षा से अधिक उन्हें अनुभव की आवश्यकता है। 8 फीसद से अधिक आदिवासियों की आबादी वाले भारत में आदिवासियों और उनकी सफलताओं और मुद्दों को आमतौर पर कम रिपोर्ट किया जाता है, रुढिय़ों में चित्रित किया जाता है और उपेक्षित किया जाता है। इस आख्यान को बदलना होगा। तभी हम वर्ष 2022 की थीम-‘संरक्षण में स्वदेशी महिलाओं की भूमिका और पारंपरिक ज्ञान का प्रसारण’ को वास्तविकता में बदल सकेंगे।

(लेखक दिगंबर जैन मुनि है और बीते कई वर्ष से आदिवासी अंचल में प्रवासरत हैं।)

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