आलेख

कर्मं से न बंधकर मूल स्वरुप की रक्षा करना ही रक्षाबंधन हैं

  • मन में करुणा का भाव, अनुकम्पा, दया और वात्सल्य का अवलम्बन तभी रक्षाबंधन होगा सार्थक

श्रीफल न्यूज़ के लिए प्रिया व्यास की रिपोर्ट

वास्तव में कर्मों से न बंधकर मूल स्वूरप की रक्षा करना ही ‘रक्षाबंधन’ है। विष्णु कुमार मुनि ने बंधन को अपनाया। अपने पद को छोड़कर मुनियों के रक्षार्थ गए। ऐसा करने में उनका प्रयोजन धर्म प्रभावना और वात्सल्य था। रक्षा बंधन को वास्तव में मनाना है तो बाहर और भीतर से एक सामान हो। मन मे करुणा का भाव जागृत करे, अनुकम्पा, दया, और वात्सल्य का अवलम्बन ले.. तभी यह सार्थक होगा।

रक्षा बंधन पर हममें जो करुणा भाव है वह तन, मन , धन से अभिव्यक्त हो। यह एक दिन के लिए नहीं, सदैव के लिए हमारा स्वभाव बन जाएं, ऐसी भावना भाना चाहिए। सत्वेषु मैत्री-प्राणी मात्र के प्रति मित्रता का भाव हमारे जीवन में उतारना चाहिए। तभी हमारा यह पर्व मनाना सार्थक है।

श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन पूरा देश यह पर्व प्रति वर्ष मनाता है। जैन धर्म के मतानुसार अठाहरवें तीर्थंकर अरहनाथ के समय से इस पर्व की परम्परा प्रारम्भ हुई। मुनि श्री विष्णु कुमार के निमित्त यह पर्व प्रारंभ हुआ।

700 मुनियों का उपसर्ग दूर करने वाले मुनि थे विष्णु कुमार मुनि। कहा जाता है मुनि श्री विष्णु कुमार ने मुनिरक्षार्थ अपना मुनि पद छोड़कर विक्रिया रिद्धि द्वारा मुनियों का उपसर्ग दूर किया था।

उज्जैनी नगरी में राजा श्रीवर्मा राज्य करते थे। उनके बलि, नामुचि, बृहस्पति, और प्रहलाद आदि चार मंत्री थे। एक बार उस नगरी में आचार्य श्री अकम्पन जी महारजा का 700 मुनियों के संघ सहित आगमन हुआ। राजा उनके दर्शन को गया। वहां उन्होंने मुनियों का अपमान किया जिसे सुनकर संघ के मुनि श्रुत सागर ने चारों मंत्रियों से वाद-विवाद कर उन्हें चुप करा दिया। इस घटना को राजा के सामने अपमान मानकर वह मंत्री रात में मुनि को मारने गए पर जैसे ही उन्होंने तलवार उठाई उनका हाथ खड़ा ही रह गया। नगर देवी ने उन सबको उसी अवस्था में किल (जड़) कर दिया। सुबह सब लोगों ने उन्हें देखा और राजा ने उन्हें राज्य से बाहर कर दिया।

उज्जैनी नगरी से निकाले गए ये चार मंत्री हस्तिनापुर के राजा पद्मराय की शरण में गए। पद्मराय के भाई भी जैन मुनि थे-उनका नाम विष्णु कुमार था। हस्तिनापुर के राजा का शत्रु सिंहस्थ नाम का राजा था, जिस पर पद्मराय जीत हासिल ही नहीं कर पा रहे थे। तब बलि मंत्री की युक्ति से उन्हें विजय प्राप्त हुई और उन्होंने मंत्री से ईनाम मांगने को कहा- पर मंत्री ने कहा कि जब जरूरत पड़ेगी तब मांग लूंगा। इधर आचार्य श्रीअकम्पन जी महराज 700 मुनियों के संघ सहित विहार करते हुए हस्तिनापुर पहुंचे। उनको देखकर मंत्रियों का बैर जागा और उन्होंने उन्हें मारने की योजना बनाई।

मौका पाते ही बलि ने राजा से अपना ईनाम मांग लिया । मंत्री ने कहा महराज हमें यज्ञ करना है इसलिए आप हमें 7 दिन के लिए राज्य सौंप दें। राजा ने वचनबद्धता के कारण राज्य सौंप दिया। चारों मंत्रियों ने मुनि संघ के चारों ओर पशु, हड्डी, मांस, चमड़ी के ढेर लगा दिए और फिर उसमें आग लगा दी। मुनिवरों पर घोर उपसर्ग हुआ। बलि के अत्याचार से सभी जगह हा-हाकार मच गया था और लोगों ने यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि जब मुनियों का संकट दूर होगा तो उन्हें आहार कराकर ही भोजन ग्रहण करेंगे।

जब यह घटना विष्णु कुमार मुनि को पचा चली तो वह हस्तिनापुर गए और एक ब्राह्मण पंडित का रूप धारण कर राजा बने बलि के सामने उत्तमोत्तम श्लोक बोलने लगे।

बलि राजा पंडित से बहुत खुश हुआ और इच्छित वर मांगने को कहा -विष्णुकुमार ने तीन पग जमीन मांगी। बलि ने कहा जी महाराज  ले लीजिए

विष्णु कुमार ने विराट रूप धारण कर एक पग सुमेरु पर्वत पर रखा और दूसरा पग मानुषोत्तर पर्वत पर रखा और अब स्थान नहीं बचा तो उन्होंने राजा बलि से सहा बोल अब तीसरा पग कहा रखूं, तीसरा पग रखने की जगह दे नहीं तो तेर सिर पर रखकर तुझे पताल में उतार दूंगा। चारों ओर खलबली मच गई। देवों और मनुष्यों ने विष्णु कुमार मुनि को विक्रिया समेटने के लिए कहा- राजा बने बलि सहित चारों मंत्रियों ने भी क्षमा मांगी। विष्णु कुमार मुनि ने मुनिसंघ पर किए गए उपसर्ग को दूर करवाया और अहिंसा पूर्वक धर्म का स्वरूप समझाया। इस प्रकार 700 जैन मुनियों की रक्षा हुई।

संकट दूर होने पर सभी लोगों ने दूध की सेवइयों का हल्का भोजन तैयार किया क्योंकि मुनि कई दिन के उपवासे थे। मुनि केवल सात सौ थे अत: केवल सात सौ घरों पर ही आहार ले सकते थे। इसलिए शेष घरों में उनकी प्रतिकृति बनाकर और उसे आहार देकर प्रतिज्ञा पूरी कई गई।

सबने परस्पर में रक्षा करने का बंधन बांधा, जिसकी स्वीकृति त्यौहार के रूप में अब तक चली आ रही है। दीवारों पर जो चित्र रचना की जाती है उसे सौन कहा जाता है। यह सौन शब्द श्रमण शब्द का अपभ्रंश माना गया है। श्रमण शब्द प्राचीन काल में जैन साधु का सूचक था।

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