क्या आप जानते है

क्या आप जानते हैं 6 : भगवान का पूजन करने से होती है सौभाग्य की प्राप्ति


पूजन,अर्चन,भक्ति इन सबके माध्यम से श्रावक पंचपरमेष्ठी भगवान के गुणों का गान करते हैं, उनका चिंतन करते हैं। इन सबके साथ भाव का होना अत्यंत आवश्यक है। पूजा हो या पूजन, दोनों एक ही हैं। जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल इन द्रव्यों के साथ पूजा की जाती है तथा जो द्रव्य चढ़ाने में समर्थ नहीं है, वह भावों द्वारा भी जिनेन्द्र भगवान के गुणों का गुणा कर भगवान की भाव पूजा करते हैं। पूजा गान, नृत्य के साथ करने का विधान है। पूजा के निमित्त से असंख्यात गुणी कर्मों को निर्जरा होती है। मंदिर जी के उपयोग आने वाली अर्थात भगवान की भक्ति में काम आने वाले उन सभी द्रव्यों से भी पूजा कर सकते हैं। भगवान के मंदिर में उपयोगी द्रव्य भक्ति के साथ द्रव्य देना भी पूजा है। महापुराण में याग, यज्ञ, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह यह सब पूजा के पर्यायवाची नाम हैं।

पूजा करने का अधिकार किसे?

– प्रतिष्ठा पाठ में लिखा हुआ है कि न्याय से आजीविका चलाने वाला हो, गुरु भक्त हो, उत्साही हो, विनयशील हो, व्रत क्रिया से सहित शीलवान हो, दातृत्व (दान)गुण से युक्त हो, शास्त्रों के अर्थ का जानकार हो, कषाय से हीन हो, कलंक रहित हो, पाप, मद, क्रोध आदि कषाय और सप्तव्यसन आदि कुकर्म से दूर रहने वाला हो, अंग से हीन ना हो, ऐसा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य व्यक्ति पूजा करने का अधिकारी है।

– 8 वर्ष का होने के बाद उपनयन संसकर के बाद ही वह पूजा करने का अधिकारी है।

– जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल, अर्घ्य इन द्रव्य से पूजा करते हैं।

– तिलो शास्त्र में कहा है कि झारी, कलश, दर्पण, छत्र, चामर, जल, गंध, कुमकुम, मोतियों, अक्षत, पुष्प की माला, धूप, फल, दाख आदि से पूजन कर सकते हैं।

– महापुराण में आया है कि भरत चक्रवर्ती ने पके हुए आम, जामुन,कटहल, केला, अनार, सुपारी, नारियल आदि फलों से पूजा की थी।

– सागर धर्मामृत में कहा गया है कि अर्हंत भगवान की पूजा का संकल्प करने वाला मेंढक भी स्वर्ग में देव बन गया।

– जो निर्मल भाव के साथ भगवान की पूजा कमल, केतकी, मालती, मोगरा, जूही, चमेली, चम्पा, गुलाब आदि सुगंधित फूलों से भगवान का पूजन-अर्चन करता है, वह पुष्पक विमान को अर्थात् देवों का उत्कृष्ट देव होता है, वहां पर क्रीड़ा करता है।

– जो जिनेन्द्र भगवान के मंदिर में चंदन आदि से बनी धूप खेता है अर्थात धूप से पूजन करता है, उसे सुगंधित शरीर की प्राप्ति होती है।

– जो दीपक से पूजन करता है, उसका शरीर देवों जैसा प्रकाशन शरीर प्राप्त होता है।

– जो जिनेन्द्र भगवान के मंदिर में छत्र, चामर, झालर, घंटा, ध्वजा, दर्पण आदि मंगल द्रव्य दान देता है अर्थात् चढ़ाता है तथा मंदिर को सजाता है, उसे धन, दौलत आदि की इतनी विभूति मिलती है, जिसकी कल्पना नहीं कर सकते।

– भगवती आराधना में कहा है कि अकेली जिनभक्ति ही दुर्गति का नाश करने वाली है। इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है और मोक्ष सुख मिलने से पहले तक इन्द्र पद, चक्रवर्ती पद, अहिंद्र पद और तीर्थंकर पद मिलता है।

वसुनंदी श्रावकाचार और सागर धर्मामृत में अष्ट द्रव्य से पूजा करने का महत्व बताते हुए कहा गया है-

-जलधारा से पूजा करने से पापों का नाश होता है।

– चंदन चढ़ाने से सुगंधित शरीर और सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

– अक्षत से पूजा करने पर उत्तम वंश में जन्म होता है।

– पुष्प से पूजा करने पर संसार में भोगों की कमी नहीं होती है।

– नैवेद्य से पूजा करने से लक्ष्मी (धन) की प्राप्ति होती हैं और दरिद्रता का नाश होता है।

– दीप से पूजा करने पर कांतिवान, बुद्धि का विकास, अंत में कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति होती है।

– धूप से पूजन करने पर यश की प्राप्ति और सौभाग्यशाली होता है।

– फल से पूजा करने वाला इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है।

– अर्घ्य से पूजन करने से शाश्वत सुख प्राप्त होता है।

– जिन मंदिर में घंटा दान करने वाला स्वर्ग में अप्सराओं के साथ क्रीड़ा करता है।

– जिन मंदिर में छत्र दान करने वाला शत्रु से रहित होकर शांति से रहता है।

– जिन मंदिर में चामरों का दान करने से चामरों के समूह द्वारा परिविजित होता है।

– ध्वज देने से युद्ध में विजय को प्राप्त होता है।

इतना जानकार पहले जिन पूजा को महत्व देना चाहिए, तभी संसारी सुख और मोक्ष सुख मिलता है। आदिनाथ पुराण में लिखा है कि भरत चक्रवर्ती को तीन शुभ समाचार एक साथ मिले, 1. चक्ररत्न 2. पुत्ररत्न 3. आदिनाथ भगवान को केवल ज्ञान की प्राप्ति। भरत चक्रवर्ती ने पहले केवलज्ञान महोत्सव मनाया।

रत्नकरण्ड श्रावकाचार पं. सुदासुख दास वाला ने लिखा है कि पूजा के पांच अंग हैं। आह्वान ,स्थापना, सन्निधिकरण, पूजन, विसर्जन।

पूजा दिन में तीन बार कर सकते हैं। सुबह, दोपहर, शाम अर्थात सुबह 4 बजे से ,दोपहर 12 बजे, शाम 6 बजे।

पूजा करने की दिशा

उमस्वामी श्रावकाचार में कहा गया है कि पूजा करते समय पूर्व या उत्तर में मुख करना चाहिए। अन्य दिशाओं में मुखकर पूजा करने से अशुभ फल मिलता है। पश्चिम दिशा में मुख़कर पूजा करने से संतान विच्छेद होता है। दक्षिण दिशा और वायव्य दिशा की ओर मुख कर पूजा करने से संतान नहीं होती है। आग्नेय दिशा की ओर मुख कर पूजन करने से धीरे-धीरे धन की हानि होती है। नैऋत्य दिशा में मुखकर पूजा करने से कुल का क्षय होता है। ईशान दिशा में मुख कर पूजा करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है। शांति और पुष्टि के लिए पूर्व दिशा में मुख कर पूजा करनी चाहिए और धन की प्राप्ति के लिए उत्तर दिशा में मुख कर पूजा करनी चाहिए।

अंत में यह भी जानें

सागर धमामृत में कहा गया है कि जो व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार जिनेन्द्र भगवान की पूजन की साम्रगी लेकर चार हाथ आगे देखकर चलता है, वह देश ब्रती श्रावक मुनि के समान है।

(अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर महाराज की कलम से)

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