ग्रन्थमाला

सम्यक दर्शन के लिए धर्म के मूल रूप को पहचानना जरूरी

काल का प्रभाव कहें या सृष्टि में पाप कर्मों की बढ़ती मात्रा। संसार में चारों ओर अधर्म एवं अनुशासनहीनता बढ़ रही है। धर्म के मूल रूप त्याग, साधना, तप के स्थान पर पाखण्ड और बनावटी धार्मिक क्रियाओं को महत्व मिल रहा है। संसार की चकाचौंध में फंसे हुए तत्व धर्म के वास्तिक स्वरूप से परिचित कराने के बजाय लोगों को और अधिक सांसारिक मोह-माया में धकेल रहे हैं। धर्म का जो रूप लोगों को दिखाया जा रहा है, वह सम्यकत्व से दूर है। जीव कल्याण इसमें निहित नहीं है। जीवन में सम्यक दर्शन तो अनुशासन और भगवान तीर्थंकर के बताए मार्ग के अनुसरण से ही संभव है।

रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने कहा है …

श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् ।

त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमदमयं ।। 4 ।।

अर्थात- सम्यक दर्शन का स्वरूप (सत्यार्थ) – यथार्थ आप्त, आगम और गुरु का तीन मूढ़ता से रहित, आठ स्मय (मद) से रहित और आठ अंग से सहित श्रद्धान करना सम्यक दर्शन है ।

सम्यक दर्शन का जन्म, उन्नति और विकास अरिहंत भगवान, शास्त्र और गुरु की आराधना से ही संभव है। अर्थात देव, शास्त्र एवं गुरू की आराधना से जीवन में सत्य के दर्शन की सामर्थ्यता जागृत हो जाती है। यह सामर्थ्य हमें धर्म के वास्तविक रूप को समझने में सहायक है। अरिहंत आदि की आराधना में भी अनुशासन का विषेष महत्व है।

लोक मान्यता में चली आ रही परम्पराओं से दूर होकर, राग-द्वेष-परिग्रह के साथ की जा रही साधु प्रवृति अंतः मन से संत की प्रकृति नहीं है। ऐसा करना केवल वेष से साधु होना है, मन से नहीं। ऐसी आराधना से जीवन मंे सम्यक दर्शन का जन्म नहीं हो सकता, बल्कि इससे धर्म के मिथ्यारूप में पड़कर पहले से जो अर्जित किया है, वह भी चला जाता है। यह सब तो संसार का दुःख बढ़ाने वाला है। हमें धन, वैभव और परिग्रह से रहित होकर बिना आकांक्षा एवं बिना शंका के धर्म की आराधना करनी चाहिए तथा कर्म के उदय के कारण धर्म से दूर जा रहे व्यक्ति को धर्म मार्ग में लगाने के भाव रखने चाहिए। ऐसे सम्यक भावों और अनुशासन के साथ धर्म के मूल रूप का पालन करके ही हम जीवन में सम्यक दर्शन की प्राप्ति में सफल हो सकते हैं।

(अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर महाराज की डायरी से)

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