ग्रन्थमाला

जो प्रशंसा के साथ गलतियां भी बताए, वही सच्चा

यह तुमने अच्छा किया। यह तुमने गलत किया। तुम्हें अपनी गलती को स्वीकार करना चाहिए। यह बात बताने वाला ही सच्चा मित्र होता है, क्योंकि वह तुम्हें जीवन की सच्चाई से अवगत करा रहा है। अच्छे कार्यों के लिए उत्साहवर्द्धन के साथ-साथ जो आपकी कमियों और अवगुणों की ओर भी आपका ध्यान आकर्षित करे, वह ही आपका सच्चा हितैषी हो सकता है। स्वार्थवश हमेशा प्रशंसा करने वाला कभी भी आपके लिए हितकारी नहीं हो सकता। जो तुम्हारी गलती को तुम्हें नहीं बताए और सुख के समय तुम्हे अहंकारी बनने से नहीं रोकेे, तुम्हारी कमजोरियों और सच्चाई से तुम्हें अवगत नहीं कराए, वह कदापि सच्चा मित्र नहीं हो सकता। प्राचीन शास्त्रों में भगवान को ही सच्चा मित्र बताया है, क्योंकि वह बिना राग-द्वेष, बिना भेदभाव सबको एक जैसा उपदेश देते हैं। सभी को निर्मल और शुभ कर्मों की ओर अग्रसर होने का मार्ग दिखाते हैं।

आचार्य समन्तभद्र स्वामी में रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है कि….

आप्तेनोत्सन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना ।
भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।।

अर्थात – जिसने राग-द्वेष आदि दोषों का निवारण कर दिया है, जो चराचर जगत को जानने वाला सर्वज्ञ है और वस्तु स्वरूप के प्रतिपादक आगम का स्वामी अर्थात् मोक्ष मार्ग का प्रणेता है, वही पुरुष नियम से सच्चा आप्त होने के योग्य है। अन्यथा आप्तपना हो नहीं सकता।
मेरी भावना में विद्वान श्री जुगलकिशोर जी ने बहुत सुंदर पंक्तियां कही हैं कि भगवान नाम से नहीं गुणों से पहचाने जाते हैं-
जिसने राग द्वेष कामादिक जीते सब जग जान लिया ।
सब जीवों को मोक्ष मार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया।।
बुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर, ब्रम्हा, या उसको स्वाधीन कहो ।
भक्ति-भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी में लीन रहो ।।

ईश्वर के जिन गुणों की व्याख्या इन पंक्तियों में की गई है, उनके अनुरूप ही अगर हम राग-द्वेष, काम, क्रोध से दूर होकर आध्यात्मिक एवं भक्ति मार्ग की ओर उन्मुख होंगे, तो हमारा कल्याण अवश्य होगा और हम सम्यकत्व की ओर बढ़ सकेंगे।

(अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर महाराज की कलम से)

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