बदलाव की बयार

चिंतन का विषय : अब दिगम्बर-श्वेताम्बर में बंट कर रहने का समय गया

मनीष गोधा,जयपुर

शाश्वत तीर्थ श्री सम्मेद शिखर जी पर जिस तरह का उपसर्ग आया, उसने हमारे समाज को सबसे बडा सबक यही दिया है कि अब दिगम्बर और श्वेताम्बर में बंट कर रहने का समय नहीं है। आने वाले समय चुनौतीपूर्ण रहने वाला है और सरकारें चूंकि वोट बैंक की भाषा ही आसानी से समझती हैं, इसलिए वोट बैंक की ताकत बनना बहुत जरूरी है।
पूरे देश में जैन धर्मावलम्बियों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं है। सम्मेद शिखर जी को लेकर पूरे देश में जो कुछ हुआ, उसके बाद सरकार चेती तो सही, लेकिन यह ध्यान रखिए कि सम्मेद शिखर जी पर आया उपसर्ग हम सबके लिए एक अलार्म है जो यह बता रहा है कि अभी नहीं चेते तो आगे स्थितियां और खराब हो सकती हैं, क्योंकि अब सरकारें दो ही तरह से सुनती हैं। या तो आप गुर्जरों की तरह पटरियों पर बैठें और या आपकी संख्या इतनी ज्यादा हो कि सरकारें आपकी अनदेखी ना कर सकें, लेकिन हमारे समाज के साथ समस्या यह है कि हम दोनो ही काम नहीं कर सकते। ना हम हिंसक हो सकते हैं और ना अपनी आबादी बढाने जैसे प्रतिगामी कदम उठा सकते हैं। हम जो हैं, वही रह सकते हैं और उसी में से हमें भविष्य के लिए रास्ता खोजना होगा, क्योंकि शिखरजी जैसे मुद्दे अलग-अलग रूपों में सामने आते रहेंगे। जैसे कि पहले संथारा के रूप में आया औश्र अब शिखरजी को लेकर आ गया। इसी तरह कल कोई और विषय आ सकता है।
शिखरजी का संकट टला नहीं है
शिखरजी वाले मामले में भी संकट अभी पूरी तरह से टला नहीं है, क्योंकि सरकार ने फैसला भले ही बदल दिया हो, लेकिन वहां के मूल निवासी आदिवासी समुदाय को लेकर जिस तरह की खबरें आ रही है वो बहुत अच्छी नहीं हैं। इस क्षेत्र में हमें जाते रहना है और शांतिपूर्ण ढंग से वंदना करनी है तो स्थानीय समुदाय से दुश्मनी नहीं रखी जा सकती और ध्यान रखिए कि आदिवासी समुदाय को भड़काने वाले कई प्रेशर ग्रुप्स देश भर में सक्रिय हैं। यानी संकट पूरी तरह टल गया हो, ऐसा नहीं है। सरकार अपना काम कर देगी, लेकिन वहां का स्थानीय समुदाय इसे मानेगा, इसकी क्या गारंटी है और यदि उसका दबाव पड़ा तो सरकार फिर से नहीं पलटेगी इसकी क्या गारंटी है, क्योंकि सरकारों के फैसले वोट बैंक से होते है और झारखंड में कोई भी सरकार स्थानीय आदिवासी समुदाय को नाराज कर के ना बन सकती है ना चल सकती है। यानी कुल मिला कर जिन्न बोतल से बाहर आ गया है और अब आगे का रास्ता चुनौतीपूर्ण है। बहुत सोच-समझ कर कदम बढाने होंगे और यह भी मान कर चलिए कि कि इस तरह की चुनौतियां अन्य तीथों को लेकर भी सामने आती रहेंगी, क्योंकि हमारे ज्यादातर पुराने तीर्थ उन स्थानों पर हैं जहां हमारा समुदाय बहुत बडी संख्या में नहीं है और कभी था भी तो अब पलायन करता जा रहा है।
सबसे पहले जरूरी है ये काम
पहले संथारा और अब सम्मेद शिखरजी इन दोनों ही विषयों पर हमारे समाज को जीत मिलने का एक बडा कारण यह था कि दोनों ही विषयों से दिगम्बर और श्वेताम्बर समुदाय जुडे हुए थे। ऐसे में इन विषयों पर तो हम एक हो गए, लेकिन मान लीजिए कभी किसी ऐेसे तीर्थ पर संकट आया कि जो सिर्फ दिगम्बरों या सिर्फ श्वेताम्बरों का है तो क्या होगा? क्या तब भी यह एकता बनी रह सकेगी? अभी तक का हमारा अनुभव इस मामले में बहुत अच्छा नहंीं रहा है और उसके जो भी कारण रहे हैं, वह हमारा समाज और समाज के नीति नियंता अच्छे से जानते है।
लेकिन अतीत में जो हुआ उसे भूल कर अब सबक लेने की जरूरत है। अब एक होने की जरूरत है, कम से कम जब धर्म पर आंच आए, जब हमारी आस्था पर चोट लगे या कोई भी संकट आए और फिर वो चाहे दिगम्बर आम्नाय पर आए या श्वेताम्बर पर, हमें दुनिया के सामने एक होकर जाना होगा। हम अपनी उपासना पद्धति अलग-अलग रखें, मंदिर अलग हों, यह सब चलेगा, लेकिन जब संकट आए तो दिगम्बर और श्वेताम्बर भूलना होगा और कंधे से कंधा मिला कर लड़ना होगा। सरकारें यदि वोट बैंक की भाषा समझती है तो उन्हें उनकी भाषा में ही समझाना होगा।
शिखरजी और ऐसे और भी जो तीर्थ हैं जहां दोनों आम्नायों का दखल रहा है, वहां के प्रबंधन के लिए संयुक्त समितियां बना कर काम करना होगा और ऐसे तीर्थों को लेकर हमारे जो भी विवाद हैं, उन्हें आपस में मिल बैठ कर दूर करना होगा। कोशिश यह रहे कि इनमें से कोई भी विवाद किसी भी हालत मे कोर्ट तक ना पहुंचे और कोर्ट तक क्या, किसी भी तरह से बाहर तक ना आए। सभी विवादों को हम आपस में मिल बैठ कर सुलझाएं। इसमें दोनों ही आम्नायों के संतों की भी अहम भूमिका रहेगी, इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई एक समन्वय संस्था गठित कर सभी विषयों को सुलझाया जाए और यह तय किया जाए कि अब तक जितना बंट चुका, वह ठीक है, लेकिन कम से कम अब भविष्य में समाज और नहीं बंटेगा।

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