संत परिचय

संत परिचय-2 : आज पढ़िए आचार्य श्री वीर सागरजी महाराज का परिचय


श्रीफल जैन न्यूज की ओर से जैन संतों और साध्वियों की परिचय की श्रृंखला शुरू की जा रही है। जैन धर्म में मुनि बनना एक बहुत साहसिक और वैराग्य पूर्ण कार्य है। हर कोई व्यक्ति मुनि नहीं बन सकता। जैन दर्शन में मुनियों के आचार- विचार और दिनचर्या पर बहुत ही स्पष्ट और सख्त नियम बनाए हैं। श्रीफल जैन न्यूज का उद्देश्य है कि इस श्रृंखला के जरिए पाठक जान सकें कि जैन धर्म जीवन जीने की कला है। यह अध्यात्म और विज्ञान पर आधारित जीवन मार्ग है और इनके बारे में पढ़कर लोग धर्म की राह पर चल सकें। इसी श्रृंखला की दूसरी कड़ी में आज प्रस्तुत है राजेश पंचोलिया की कलम से आचार्य श्री वीर सागर महाराज के बारे में…


परम पूज्य आचार्य श्री वीर सागर जी महाराज ने महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद जिले में वीर ग्राम में हीरालाल जी गंगवाल के रूप में जन्म लिया ।पूर्णिमा को आपका जन्म हुआ एक तरह से उनकी जीवन की कथा पूर्णिमा से अमावस्या तक है। आपके जन्म के 45 दिन पश्चात जिन मंदिर में णमोकार मंत्र सुना कर 8 वर्ष की उम्र तक के लिए अष्ट मूलगुण पालन का नियम दिया गया।

धार्मिक पाठशाला संचालन
सन 1917 में कचनेर अतिशय क्षेत्र में धार्मिक पाठ शाला का संचालन आपने प्रारम्भ किया। आपने 7 प्रतिमा का नियम सन 1921में नांद गांव में चातुर्मास कर रहे ऐलक श्री पन्ना लाल जी से प्रेरणा पाकर लिया। ऐलक श्री पन्नालाल जी से उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत लिया। आपके पिता का नाम रामसुख और माता का नाम श्रीमती भाग्यवती जैन था।

आचार्य शांतिसागर के प्रथम मुनि शिष्य

आपको चारित्र चक्रवती प्रथम आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के प्रथम मुनि शिष्य बनने का सौभाग्य मिला और मुनिश्री वीर सागर जी कहलाए। 81 वर्ष का संयमी जीवन रहा यह 12 वर्ष तक गुरु सानिध्य में रहे जीवन को अमृत तुल्य बनाया। आपको बता दे 20वीं शताब्दी में चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने मुनि धर्म का प्रवर्तन किया था। आचार्य जी ने 47 वर्ष की उम्र में क्षुल्लक दीक्षा ली। आपकी क्षुल्लक दीक्षा तिथि फाल्गुन शुक्ल सप्तमी, वि.स.1980, सन 1923 थी। आपने क्षुल्लक दीक्षा समडोली, सांगली (महाराष्ट्र) में ग्रहण की। क्षुल्लक अवस्था में वह एक वर्ष रहे। आश्विन शुक्ल एकादशी वि.सं. 1989 सन् 1924 में आचार्य शांति सागर महाराज से मुनि दीक्षा ग्रहण की। आगे चलकर 79 वर्ष की उम्र में आपको प्रथमाचार्य आचार्य श्री शांति सागर जी ने प्रथम पट्टाधीश घोषित किया। आपने गुरु आदेश के पालन में आचार्य पद ग्रहण किया।

मुनि दीक्षा-10
आर्यिका दीक्षा – 11
ऐलक दीक्षा- एक
क्षुल्लक दीक्षा- 2
क्षुल्लिका दीक्षा – 4

समाधि
81 वर्ष की उम्र में जयपुर खनिया जी में आश्विन कृष्ण अमावस्या सोमवार, 23 सितंबर, 1957 को आपकी समाधि हुई।

संस्मरण
आचार्य श्री ने ब्रह्मचारी अवस्था में घी, नमक, तेल और मीठे इन चार रसों का आजीवन त्याग कर दिया था। आचार्य श्री की पीठ में फोड़ा हो जाने पर डॉक्टर ने कहा कि इलाज के लिए दवाई देनी होगी। आचार्य श्री ने कहा आप इलाज करो। एक घंटे तक डॉक्टर इलाज करता रहा। शारीरिक पीड़ा से अविचलित रह कर स्वाध्याय करते रहे। शरीर और आत्मा की भिन्नता को जीवन मे उतारने का इससे बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता।

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