संत परिचय

संत परिचय-3 : आज पढ़िए आचार्य श्री शिव सागरजी महाराज का परिचय  


श्रीफल जैन न्यूज की ओर से जैन संतों और साध्वियों की परिचय की श्रृंखला शुरू की जा रही है। जैन धर्म में मुनि बनना एक बहुत साहसिक और वैराग्य पूर्ण कार्य है। हर कोई व्यक्ति मुनि नहीं बन सकता। जैन दर्शन में मुनियों के आचार- विचार और दिनचर्या पर बहुत ही स्पष्ट और सख्त नियम बनाए हैं। श्रीफल जैन न्यूज का उद्देश्य है कि इस श्रृंखला के जरिए पाठक जान सकें कि जैन धर्म जीवन जीने की कला है। यह अध्यात्म और विज्ञान पर आधारित जीवन मार्ग है और इनके बारे में पढ़कर लोग धर्म की राह पर चल सकें। इसी श्रृंखला की तीसरी कड़ी में आज प्रस्तुत है वात्सल्य वारिधि भक्त परिवार के राजेश पंचोलिया की कलम से आचार्य श्री शिव सागर महाराज के बारे में…


भारत देश में अनेक भव्य आत्माओं ने जन्म लिया है। भारत के महाराष्ट्र राज्य के औरंगाबाद जिला अजंता एलोरा की गुफाओं के कारण प्रसिद्ध है किंतु जैन धर्म की धार्मिक दृष्टि से देखेंगे तो अनेक दिगंबर साधु महाराष्ट्र से हुए हैं। इन्हीं में से एक हैं आचार्य शिव सागर जी महाराज। श्रीमती दगड़ा बाई, श्री नेमीचंद जी रावका खंडेलवाल के यहां विक्रम संवत 1958 ग्राम अड़गांव में आचार्य श्री जन्म हुआ। आपका नाम श्री हीरा लाल रखा गया। आप का लालन-पालन साधारण परिवार में हुआ किंतु आप असाधारण रहे। माता ने 2 पुत्र व दो पुत्रियों को जन्म दिया। प्लेग की बीमारी में आपके माता पिता का निधन हो गया। जब श्री हीरालाल जी की उम्र 13 वर्ष की थी, तब आपके बड़े विवाहित भाई का भी निधन हो गया।

ऐसे बढ़े धर्म की राह पर

निकटवर्ती ग्राम इर गांव में नाम राशि श्री हीरालाल जी गंगवाल आपके शिक्षा गुरु रहे। अतिशय क्षेत्र कचनेर स्थित श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन प्राथमिक विद्यालय में आपकी लौकिक शिक्षा हुई। 28 वर्ष की उम्र में आपने प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी के दर्शन किए और आचार्य श्री शांतिसागर जी से दो प्रतिमा के नियम व्रत धारण किए। विक्रम संवत 1999 में शिक्षा गुरु मुनि श्री वीर सागर जी महाराज से मुक्तागिरी में सात प्रतिमा के नियम लिए तथा ब्रह्मचारी बनकर संघ में प्रवेश किया। विक्रम संवत 2000 में मध्यप्रदेश के सिद्ध क्षेत्र श्री सिद्धवरकूट में बाल ब्रहमचारी श्री हीरा लाल जी ने मुनि श्री वीर सागर जी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की और क्षुल्लक श्री शिव सागर जी नामकरण हुआ। लौकिक शिक्षा गुरु हमनाम आपके आध्यात्मिक दीक्षा गुरु भी बन गए।

विक्रम संवत 2006 नागौर में आपकी मुनि दीक्षा हुई और मुनि श्री वीर सागर जी ने प्रथम मुनि शिष्य के रूप में आपको मुनि दीक्षा दी।

मुनि दीक्षा के बाद आचार्य श्री वीर सागर जी की समाधि तक आपने गुरुदेव का सानिध्य में ही रहे। आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की समाधि के समय आचार्य श्री वीर सागर जी को प्रथम पट्टाचार्य पद मिला। आचार्य श्री वीर सागर जी की समाधि के बाद आपको मुनि श्री शिव सागर जी को विक्रम संवत 2014 कार्तिक शुक्ला 11 सन् 1957 को आचार्य श्री शांति सागर जी की परम्परा में द्वितीय पट्टाचार्य पद मिला।

इतनी दीक्षाएं

-11 मुनि दीक्षा

-21 आर्यिका दीक्षा

-एक ऐलक दीक्षा

– 4 क्षुल्लक दीक्षा

-एक क्षुल्लिका दीक्षा

-कुल 38 दीक्षाएं।

अनायास हुई समाधि

फागुन कृष्णा अमावस्या विक्रम संवत 2025, 16 फरवरी सन 1969 को श्री महावीरजी अतिशय क्षेत्र पर आप की अनायास समाधि हो गई।

कुछ संस्मरण

आचार्य श्री शिव सागर जी के सानिध्य में खानीया जी में तत्व चर्चा पूरे भारत में प्रसिद्ध रही। जब मुनि मार्गी और सोनगढ़ मार्गियों के बीच में आपके सानिध्य में तत्व चर्चा चली। यद्यपि इस चर्चा का कोई हल नहीं निकला किंतु इस तत्व चर्चा से काफी कुछ गलतफहमी भी दूर हुई।

संघ का चातुर्मास

आचार्य श्री शिव सागर जी के संघ का चतुर्मास कोटा में चल रहा था। एक आर्यिका माता जी के पैर में कांच का टुकड़ा चुभ गया। उससे रक्त बह निकला। उन्होंने जब आचार्य श्री कोई घटना सुनाई तो आचार्य श्री ने माताजी को एक उपवास का प्रायश्चित दिया। जब किसी ने इस बारे में आचार्य श्री से पूछा कि कोई श्रावक का रक्त निकलता है तो कमजोरी दूर करने के लिए उसको उस दिन हलवा मीठा खिलाया जाता है ताकि इन वस्तुओं से उसके शरीर में खून की पूर्ति हो जाए। आचार्य श्री का उत्तर था खून कितना निकला वह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि पैर कदम देखकर क्यों नहीं रखा। अगर उस समय कुछ सूक्ष्मजीवों की विरादना होती तो वह कितना गलत होता। एक और प्रसंग देखने में आता है कि पूजा के द्रव्यों का विवेचन करते हुए आचार्य श्री शिव सागर जी ने विश्लेषण प्रस्तुत किया कि आचार्यों ने गेहूं को पूजा की सामग्री में सम्मिलित क्यों नहीं किया और चावल को ही क्यों शामिल किया। चावल के द्वारा आचार्य श्री भक्तों को भेद विज्ञान का आभास कराते हैं। जिस प्रकार धान का छिलका और चावल अलग-अलग है, उसी प्रकार शरीर और आत्मा अलग-अलग है। जिस प्रकार धान का छिलका दूर किए बिना चावल के ऊपर का मैल दूर नहीं किया जा सकता है, उसी प्रकार ब्राह्य परिग्रह का त्याग किए बिना अंतरंग परिग्रह नहीं छोड़ा जा सकता है।

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