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धर्मसभा में दिए प्रवचन : आखा तीज महान, दिया कर्मों का ज्ञान – आचार्य अतिवीर मुनि


धर्मसभा में आचार्य अतिवीर मुनि ने अक्षय तृतीय का महत्व बताते हुए कहा कि उसी दिन से दान-तीर्थ का प्रवर्तन हुआ तथा इस शुभ तिथि को अक्षय तृतीया के नाम से पुकारा जाने लगा। महामुनि ऋषभदेव ने जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार कर सर्वत्र अहिंसा का पाठ पढ़ाया तथा जन मानस के समक्ष त्याग-तपस्या की परिभाषा को लिख डाला। पढ़िए यह विशेष रिपोर्ट…


जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर देवाधिदेव श्री ऋषभदेव भगवान को वैसाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीय तिथि को हस्तिनापुर में इक्षु रस का प्रथम आहार प्राप्त हुआ था। धर्मसभा में आचार्य अतिवीर मुनि ने अक्षय तृतीय का महत्व बताते हुए कहा कि उसी दिन से दान-तीर्थ का प्रवर्तन हुआ तथा इस शुभ तिथि को अक्षय तृतीया के नाम से पुकारा जाने लगा। महामुनि ऋषभदेव ने जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार कर सर्वत्र अहिंसा का पाठ पढ़ाया तथा जन मानस के समक्ष त्याग-तपस्या की परिभाषा को लिख डाला। छह माह तक घोर तपश्चर्या के पश्चात जब मुनिराज आहारचर्या हेतु नगर की ओर बढे़ तो किसी भी श्रावक को दिगम्बर मुनिराज की आहारचर्या की विधि का ज्ञान नहीं था। राजा श्रेयांस को जाति-स्मरण हुआ तब उन्होंने पड़गाहन कर नवधाभक्ति पूर्वक महामुनि ऋषभदेव का निरन्तराय आहार करवायाय़

कर्मों पर चिंतन करें

उन्होंने कहा कि हम सभी ने महामुनि की प्रथम आहारचर्या की खुशी तो मना ली परन्तु क्या कभी इस तथ्य पर गौर किया कि ऐसे महातपस्वी को भी आहार के लिए इतने लम्बे समय के लिए क्यों इंतज़ार करना पड़ा? क्या सदैव तपस्या में संलग्न, सदा कर्मों की निर्जरा में तत्पर महामुनि ऋषभदेव को भी पूर्व में किए गए कर्मों का हिसाब देना पड़ा। शायद हम सभी ने अपनी सुविधा के लिए इन सभी विषयों को गौण कर बस उनकी प्रथम आहारचर्या का उत्सव मना लिया लेकिन वास्तविकता को नकारा नहीं जा सकता और हमें इस पर चिन्तन अवश्य करना होगा कि कर्मों की मार से कोई भी, कभी भी, किसी भी सूरत में नहीं बच सकता।

सदैव बचें पाप से

मुनि श्री ने कहा कि अक्षय तृतीया केवल महामुनि ऋषभदेव का पारणा दिवस नहीं है अपितु यह दिवस इस बात का भी द्योतक है कि पूर्व में किए गए कर्म हमारे आगे अवश्य आते हैं तथा हमें उन सभी का हिसाब-किताब यहीं पर चुकता करना पड़ता है। राजकुमार अवस्था में श्री ऋषभदेव ने फसल की सुरक्षा के लिए जानवरों के मुख पर छींका बांधने की प्रेरणा दी थी, फलस्वरूप उन्हें छः माह तक आहार प्राप्त नहीं हुआ। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या केवल प्रेरणा देने मात्र से इतना कष्ट? जी हां, बिलकुल ऐसा ही होता है। आगम के झरोखे से यह स्पष्ट होता है कि सभी जीवों को कृत-कारित-अनुमोदना, इन तीनों के द्वारा पाप कर्म का आश्रव होता है। पाप को स्वयं करना अथवा किसी दूसरे के द्वारा करवाना अथवा किसी दूसरे के द्वारा किए गए पाप की प्रशंसा करना, इन सभी में महापाप का बंध होता है। हम सभी को अपने अन्तरंग में झांककर यह भली प्रकार से देख लेना चाहिए कि हम कब, कहां और किस प्रकार से पाप कर्म का बंध कर रहे हैं। जीवन में सदैव सचेत अवस्था में रहकर पाप से बचते हुए अपने परम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अविरल बढ़ते रहना चाहिए। आचार्यों ने कहा है कि एक मूर्छित व्यक्ति दस मुर्दों से भी ज्यादा खतरनाक होता है। हम अपने जीवन में हमारी नादानी, हमारी अज्ञानता, हमारी असावधानी के कारण ना जाने कितने कर्मों का बंध कर लेते हैं। अक्षय तृतीया के इस परम पुनीत दिवस पर हम सभी को यह अवश्य समझना होगा कि कर्मों के बही-खाते से कोई भी जीव नहीं बच सकता तथा अपने जीवन में सदा सावधानी रखते हुए आत्म-कल्याण के लिए अग्रसर रहना चाहिए।

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