सम्प्रति काल में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्चर्य की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी भगवान् महावीर स्वामी के काल में थी। पूर्व में धर्म के नाम से हिंसा होती थी। वर्तमान में धर्म के साथ राज्यों, राष्ट्रों के नाम पर मानव जाति अपनी कषाय पोषण में हिंसा कर्म में लीन है। पढ़िए मुनि श्री विशुद्धसागर महाराज का यह विशेष आलेख
विश्व विकास पर विचार करना चाहिए है। विश्व में विकास होगा तो सम्पूर्ण राष्ट्रों का विकास होगा। सभी राष्ट्रों का विकास, सभी राज्यों का विकास, सभी राज्यों के विकास में सभी संभाग, जनपद, नगरों, ग्रामों का विकास उसी विकास में निहित है। सम्पूर्ण नगर, ग्रामवासियों का विकास न कि मात्र नेता, अधिकारी व धनपतियों का मात्र / सर्व विकासों से तात्पर्य धन-धरती, भोजन-पानी मकान ही ग्रहण नहीं करना, इन सब बिन्दुओं के साथ-साथ सदाचार न्याय नीति एवं परस्पर वात्सल्य का भी विकास / एकांगी विकास विश्व का विनाश है। सर्वमुखी विकास होना चाहिए है, मानव जाति मात्र का ही नहीं, सभी जीवों का विकास हो। अन्याय, अनीति, छल, कपट, व्यभिचार, अभक्ष्य भक्षण, सुरापान, वैश्यावृत्ति, जुआ, चोरी, परस्त्री सेवन, मांस, मद्य, मधु, शिकार, व्यर्थ भाषण व संक्लेश परिणामों का त्याग होना चाहिए। इन सबका सभी के मन में विनाश होना अनिवार्य है।
धर्म पुरुषार्थ जरूरी
एक श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए, महामानव बनने के लिए धर्म पुरुषार्थ का आलम्बन लेना अनिवार्य है। बिना धर्म पुरुषार्थ के मात्र अर्थ, काम में लिप्त है, उसे मोक्ष पुरुषार्थ की सदा अनुपलब्धि ही रहेगी। अर्थ, काम कामना की पूर्ति के लिए सामग्री संग्रह के हेतु बन सकते हैं, यदि लाभान्तराय का क्षयोपशम रहा तो। लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम प्रशस्त नहीं है और साता का उदय नहीं है तो व्यक्ति इच्छाएं ही कर पाएगा, इच्छित सामग्री तथा इच्छित भोग नहीं भोग पाएगा, यह सिद्धांत अटल है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को सत्यार्थ बोधपूर्वक वस्तु के वस्तुत्व को समझना चाहिए।
करो मैत्री का व्यवहार
प्रतिदिन विश्व के प्रत्येक नागरिक को विश्व विकास, मैत्री भाव, प्रमुदित परिणाम व मध्यस्थता का व्यवहार करना चाहिए। राग द्वेष की ज्वाला में न स्वयं जले, न विश्व को जलाएँ । अस्त्र-शस्त्र की दुनिया में परिणामों पर नियंत्रण करें। राष्ट्र के राष्ट्रपतियों के मन मचलने पर धर्म-संस्कृतियां, धर्म स्थान, मानव जाति ही नही सम्पूर्ण जातियाँ नष्ट हो जाएंगी। धैर्य का आलम्बन लेकर कषाय भाव को शान्त करें। स्वजातियों को ही क्यों नाश करने का विचार कर रहें ? भगवान् महावीर स्वामी के सिद्धांतों की आवश्यकता है, श्रीराम के विवेक की आवश्यकता है, न की रावण की कामुकता की, कौरवों के लोभ की। सम्प्रति काल में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्चर्य की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी भगवान् महावीर स्वामी के काल में थी। पूर्व में धर्म के नाम से हिंसा होती थी। वर्तमान में धर्म के साथ राज्यों, राष्ट्रों के नाम पर मानव जाति अपनी कषाय पोषण में हिंसा कर्म में लीन है। परस्पर वात्सलय भाव को वही मान करना चाहिए, प्राणी मात्र के उपकारों पर विचार करना चाहिए।
प्रत्येक वस्तु कर रही उपकार
मानव के लिए धरती पर प्रत्येक वस्तु उपकार कर रही है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक तथा त्रस जीव- गाय, बैल, भैंस, हाथी, घोड़े, बन्दर, भालू, पक्षीगण, मयूर आदि सभी प्राणीगण मनुष्यों का उपकार कर रहे हैं। मानव को भी अपना धर्म कर्तव्य का त्याग न कर, कर्तव्य का ध्यान रखना चाहिए। मानव, मानव रहे, दानव न बने। रूस-यूक्रेन के साथ विश्व में शान्ति स्थापित हो, अणुबमों का प्रयोग न कर, सृष्टी पर सभी जियो और जीने दो का पाठ पढे़ं। चारित्र के साथ अणुव्रतों का पालन करें। यही सम्यक् विचार विश्व में भगवान् महावीर स्वामी की जन्म जयन्ती पर उद्घोषित हो।
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