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अपने ज्ञान और अपनी तपस्या से पूरे समाज का पथ प्रदर्शन कर रही : दिगम्बर जैन परम्परा में आर्यिका रत्नों की समृद्ध परम्परा


दिगम्बर जैन परम्परा के साधु की चर्चा आते ही मन-मस्तिष्क में कठोर तपस्वी, त्यागमूर्ति, संसार की समस्त क्रियाओं से उदासीन संत की छवि उभरती है। पुरूष संतो के साथ ही जैन समाज में महिला संत यानी आर्यिकाएं भी हैं जो अपने ज्ञान और अपनी तपस्या से पूरे समाज का पथ प्रदर्शन कर रही हैं। पढ़िए रेखा जैन ,संपादक श्रीफल जैन न्यूज का आलेख ….


गणिनी प्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी

जैसे रसों में इक्षुरस और नदियों में गंगा श्रेष्ठ है, वैसे ही कन्याओं में मैना श्रेष्ठ थी। जैसे पुष्पों में कमल और सुगंधित पदार्थों में चन्दन श्रेष्ठ है, वैसे ही क्षुल्लिकाओं में वीरमती श्रेष्ठ थीं। जैसे ताराओं में चन्द्रमा और वनों में नन्दनवन श्रेष्ठ है, वैसे ही ज्ञान और शील में आर्यिका ज्ञानमती श्रेष्ठ हैं। एक ही असाधारण व्यक्तित्व की मैना से वीरमती और वीरमती से ज्ञानमती तक की यह आध्यात्मिक यात्रा 20वीं-21वीं सदी के इतिहास की एक उल्लेख्य घटना है। उनकी चर्चा और चर्या को देख-सुनकर कौन मुग्ध नहीं होता है! अवध प्रान्त के टिकैतनगर कस्बे में दिनाँक 22 अक्टूबर 1934 को सुश्रावक श्री छोटेलाल जी के घर में एक कन्यारत्न ने जन्म लिया। वह विक्रम संवत 1991 की शरदपूर्णिमा की रात्रि थी। इस दिन जन्मी इस बालिका को जब पूनों की चाँदनी ने नहलाया, तो इसके पीछे यही संकेत छिपा था कि यह बालिका बड़ी होकर सर्वत्र ज्ञान का प्रकाश फैलायेगी और स्वयं महाव्रत अंगीकार कर सबको सुख-शीतलता प्रदान करेगी। भारत में अधिकांश लोग बेटे के जन्म पर खुशियाँ और बेटी के जन्म पर मातम मनाते हैं। यह खोटी परिपाटी कब से और क्यों चल पड़ी, यह तो भगवान जाने, परन्तु इस बेटी ने अपनी बालसुलभ किलकारियों और सस्मित मुख-छवि से अपने घर-आँगन में खुशियों की जो चाँदनी बिखेरी, तो बेटों पर गर्व करने वाले भी ठगे से रह गये। इस परिवार में बेटे-बेटियों के साथ कभी भेदभाव नहीं किया गया। इस बच्ची का नाम रखा गया-मैना। मैना बचपन से ही पूर्व जन्म के संस्कारों के प्रभाव अपने साथ लेकर आई थी। मैना के मन में हितकर वार्ता को सीखने और समझने की उत्कट ललक थी। जिस चर्चा को कई-कई बार पढ़-सुनकर भी अन्य समवयस्क आत्मसात नहीं कर पाते थे, उसे वह एक-दो बार पढ़कर ही हृदयंगम कर लेती थी। प्रारंभिक शिक्षा यद्यपि उन्होंने किसी धार्मिक पाठशाला में प्राप्त की थी, किन्तु वह युग स्त्री-शिक्षा की उपेक्षा का युग था। कस्बे की अन्य कन्याओं की तरह मैना को भी आगे पढ़ाई जारी रखने से रोक लिया गया। उन्होंने घर पर ही पढ़ना जारी रखा। आठ वर्ष की उम्र से ही मैना अपनी माँ के साथ नियमित रूप से मंदिर जाने लगी थी। जब मैना ने दीक्षा ग्रहण कर ली, तो उन्हें पूज्य आचार्य श्री देशभूषण महाराज, आचार्यश्री शान्तिसागर महाराज एवं आचार्यश्री वीरसागर महाराज के उपदेश श्रवण और तत्त्वचर्चा का सौभाग्य मिलने लगा। वहाँ यथावसर वह स्वयं भी पढ़ती और गुरु-आज्ञा से संघस्थ सभी साधुओं और आर्यिकाओं को भी पढ़ाती। धीरे-धीरे चारों ही अनुयोगों के सभी उच्च कोटि के सिद्धान्त एवं आगम ग्रंथों का तलस्पर्शी पाण्डित्य माताजी ने प्राप्त कर लिया और आज पूरा विश्व उन्हेंगणिनी प्रमुख ज्ञानमती माताजी के नाम से जानता है। आज आयु के 80वें पायदान पर खड़ी मैना (सम्प्रति गणिनी आर्यिका ज्ञानमती) ने अपने बचपन के नाम की सार्थकता सिद्ध कर दी है। बचपन से आज तक माताजी का यही चिन्तन चलता रहा है-‘अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम’ अर्थात् मैं तो कुछ भी नहीं हूँ, जो कुछ हो सो तुम्ही हो। मैं तो तुम्हारी शरण में हूँ।

परम पूज्य गणिनी आर्यिका श्री सुपार्श्वमती माताजी

आपकी बहुजता, विद्या-व्यासंग, सूक्ष्म-तलस्र्पिशनी बुद्धि, अकाट्य तर्कणा शक्ति एवं हृदयग्राह्य प्रतिपादन शैली अद्भुत है और विद्वत्-संसार को भी विमुग्ध करने वाली है। राजस्थान के मरुस्थल नागौर जिले के अंतर्गत डेह से उत्तर की ओर सोलह मील पर मैनसर नाम के गांव में सहगृस्थ श्री हरक चंदजी चूड़ीवाल के घर विक्रम संवत 1985 मिती फाल्गुन शुक्ला नवमी के शुभ दिवस पर एक कन्यारत्न का जन्म हुआ-नाम रखा गया ‘भंवरी’। भूरे-पूरे घर में भाई-बहिनों के साथ बालिका भी लालित-पालित हुई पर तब शायद ही कोई जानता होगा कि यह बालिका भविष्य में परम विदुषी आर्यिका के रूप में प्रगट होगी। अपनी 7-8 वर्ष की आयु में आपको महान् योगी तपस्वी साधुराज 108 आचार्यकल्प श्री चन्द्रसागर महारजा के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ था जब वे डेह से लालगढ़, मैनसर पधारे थे। आचार्य श्री वीरसागरजी ने भंवरीबाई के वैराग्यभाव, अच्छी स्मरण शक्ति एवं स्वाध्याय की रुचि देखकर संघस्थ ब्रह्मचारी श्री राजमलजी (वर्तमान में आचार्य 108 श्री अजितसागरजी) को आज्ञा दी कि ब्रह्मचारिणी भंवरीबाई को संस्कृत, प्राकृत का अध्ययन कराये तथा अध्यात्म-ग्रंथों का स्वाध्याय कराये। विद्यागुरु का ही महान प्रताप है कि आप चारों ही अनुयोगों के साथ-साथ संस्कृत भाषा में भी परम निष्णात हो गईं। ज्यों-ज्यों आपका ज्ञान बढ़ने लगा उसका फल वैराग्यभाव भी प्रकट हुआ। विक्रम संवत 2014 भाद्रपद शुक्ला 6 भगवान सुपार्श्वनाथ के गर्भकल्याणक के दिन विशाल जनसमूह के मध्य द्वय आचार्य संघों की उपस्थिति में (आचार्य 108 श्री महावीरकीर्ति जी महाराज भी तब ससंघ वहीं विराज रहे थे) ब्र. भंवरीबाई ने आचार्य 108 श्री वीरसागर जी महाराज के कर-कमलों से स्त्री-पर्याय को धन्य करने वाली आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। भगवान सुपार्श्वनाथ का कल्याणक दिवस होने से आपका नाम सुपार्श्वमती रखा गया। आचार्यश्री के हाथों से यह अन्तिम दीक्षा थी। आर्यिकारत्न की प्रवचन शैली ऐसी है कि श्रोता अभिभूत हुए बिना नहीं रह पाते थे। विशाल जनसमुदाय के समक्ष जिस निर्भीकता से आप आगम का क्रमबद्ध, धारा प्रवाह प्रतिपादन करती हैं तो लगता था साक्षात् सरस्वती के मुख से अमृत झर रहा है। आपके प्रवचन आगमानुकूल अकाट्य तर्कों के साथ प्रवाहित होते थे। आप घंटों एक ही आसन से धर्मचर्चा में निरत रहती थी। उच्च कोटि के विद्वान् भी अपनी शंकाओं को आपसे समीचीन समाधान पाकर सन्तुष्ट होते थे। सबसे बड़ी विशेषता तो आप में यह है कि आपसे कोई कितने ही प्रश्न कितनी ही बार करें आप उसका बराबर सही प्रामाणिक उत्तर देती थीं। स्वास्थ्य अधिकतर प्रतिकूल ही रहता था, लेकिन आप कभी अपनी चर्या में शिथिलता नहीं आने देतीं थीं। णमोकार मन्त्र के जाप्य, स्मरण में आपको प्रगाढ़ आस्था थी और आप हमेशा यही कहती थीं, कि इसके प्रभाव से असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाता है। आसाम, बंगाल, बिहार, नागालैंड आदि प्रान्तों में अपूर्व धर्मप्रभावना कर जैनधर्म का उद्योत करने का श्रेय आपको ही है। महान् विद्यानुरागी, श्रेष्ठवक्ताय अनेक भाषाओं की ज्ञाता चतुरनुयोगमय जैन ग्रंथों की प्रकाण्ड विदुषी, न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त साहित्य की कर्मज्ञा, ज्योतिष, यन्त्र, तन्त्र, मन्त्र, औषधि आदि की विशेष जानकार होने से आपने अनेकों जीवों का कल्याण किया है।

परम पूज्य आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी

पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी ने कुमारी अवस्था में आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर एक अभिनव परम्परा का सूत्रपात किया। जिसके फलस्वरूप देश में आज शताधिक ऐसी आर्यिकायें हैं जिन्होंने गृहस्थाश्रम में प्रवेश के पूर्व ही संसार की असारता का ज्ञान प्राप्त कर आर्यिका के महाव्रतों को अंगीकार किया किन्तु इस परम्परा का सूत्रपात करने वाली गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रथम आर्यिका शिष्या होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ कु. माधुरी जैन को, जो आज प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी के रूप में अपनी ज्ञान रश्मियों से दिग्दिगन्त को आलोकित कर रही हैं। आप आधुनिक जीवन शैली, उसकी मजबूरियों, आवश्यकताओं एवं युवा मानसिकता को करीब से जानने एवं समझने वाली एक साध्वी है। आप अपने सहज, सरल, सौम्य एवं मधुर व्यक्तित्व से सबके लिए पूज्यनीय हो गई हैं। गृहस्थाश्रम की बड़ी बहिन एवं जैन समाज की वरिष्ठतम साध्वी, आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को आपने 1969 में गुरु के रूप में स्वीकार कर त्यागध्अध्ययन की ओर कदम बढ़ाया। 1969 से आप सतत छाया के समान पूज्य माताजी के संघ में रहकर आगमों का गुरुमुख से अध्ययन तो कर ही रही हैं, साथ ही विगत 44 वर्षों से सर्मिपत होकर पूज्य गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माताजी के संघ की ििर्नवकल्प सेवा आपकी अनन्य गुरु भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है। आगम ग्रन्थों तथा सम-सामयिक साहित्य के गहन अध्ययन से प्राप्त निष्कर्षों एवं स्वरचित भजनों, मुक्तकों से युक्त आपके प्रवचन व उद्बोधन युवा पीढ़ी को बरबस अपनी ओर आकर्षित करते हैं। आपके प्रवचन इतने सटीक, सुसंगत एवं क्रमबद्ध होते हैं कि प्रवचनोपरान्त प्रत्येक श्रोता के पास सोचने, विचारने एवं आचरण करने के लिए कुछ न कुछ सामग्री होती हैं। आपने कुछ अत्यन्त गम्भीर प्रकृति के कार्य किये हैं जिनमें सर्वोपरि है सिद्धान्त ग्रंथ षट्खण्डागम की गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी कृत सिद्धान्त चिन्तामणि शीर्षक संस्कृत टीका की हिन्दी टीका। धर्म से कोसों दूर रहने वाला युवा जो धर्म को पाखण्ड एवं ढकोसला कहता है, जब आपके सम्पर्क में आता है तो वह जान पाता है कि धर्म एक जीवन शैली है जिसे अपनाकर तनाव मुक्त जीवन जिया जा सकता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री ने हमें जीवन जीने की कला सिखाई है जीवन को सार्थकता दी है।

परमपूज्य आर्यिका श्री जिनमती माताजी

वास्तव में गुरु का सानिध्य एवं वात्सल्य जीवन को मात्र सुवासित ही नहीं करता अपितु उसे परमपूज्य भी बना देता है। यदि कल्याण की इच्छा है तो विषयों को विष के समान त्याग देना चाहिए। क्षमा, सरलता, दया, पवित्रता और सत्य को अमृत के समान ग्रहण करना चाहिए। इस तथ्य का बोध महाराष्ट्र प्रान्त की एक बाला को हुआ और वह आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के उपवन का एक सुरभित पुष्प बन गईं। कुमारी प्रभावती का जन्म विक्रम संवत. 1990 (सन् 1933) फाल्गुन शुक्ल. 15 के दिन म्हसवड़ (महाराष्ट्र) में हुआ था, इनके पिता का नाम श्री फूलचंद जैन एवं माता का नाम श्रीमती कस्तूरी देवी था। जैैनधर्म के कर्मसिद्धान्तानुसार बालिका प्रभावती के दुर्भाग्य से पितृ एवं मातृ वियोग उन्हें बचपन में ही हो गया अतः उनका लालन-पालन मामाजी के घर पर हुआ था। सन् 1955 की बात है, उस समय पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी, क्षु.वीरमती माताजी के रूप में थीं और चारित्र चक्रवर्ती आचार्यवर्य श्री शांतिसागर जी महाराज के सल्लेखना के समय आचार्य श्री के दर्शनार्थ क्षु. विशालमती माताजी के साथ दक्षिण भारत में विहार कर रही थीं, उन्होंने म्हसवड़ में चातुर्मास किया। उस चातुर्मास के मध्य अनेक बालिकाएँ पूज्य माताजी से कातंत्र व्याकरण, द्रव्य संग्रह, तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रंथों का अध्ययन कर रही थीं और उन्हीं बालिकाओं में वह 22 वर्षीया बालिका प्रभावती भी थी। माताजी ने उसके मनोभावों को जानकर अपने वात्सल्य के प्रभाव से प्रभावती को त्यागमार्ग के प्रति आकर्षित किया और सन् 1955 की दीपावली की पावन तिथि में वीरप्रभु के निर्वाणदिवस पर उन्हें आजीवन ब्रह्मचर्य एवं 10वीं प्रतिमा का व्रत दे दिया।

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