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जिनवाणी ही गुरुवाणी है- निर्यापक मुनि श्री नियम सागर जी महाराज भगवान कुंथुनाथ का जन्म, तप एवं मोक्ष कल्याणक महोत्सव मनाया गया


सुप्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र जैन तीर्थ कुंडलपुर में जैन धर्म के 17 वें तीर्थंकर भगवान कुंथुनाथ का जन्म, तप और मोक्ष कल्याणक महोत्सव धूमधाम से मनाया गया। निर्यापक श्रमण मुनि श्री योगसागर जी महाराज एवं निर्यापक श्रमण मुनि श्री नियम सागर जी महाराज का मुनि दीक्षा दिवस धूमधाम से मनाया गया। पढि़ए राजीव सिंघई मोनू की रिपोर्ट…


कुंडलपुर दमोह। सुप्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र जैन तीर्थ कुंडलपुर में जैन धर्म के 17 वें तीर्थंकर भगवान कुंथुनाथ का जन्म, तप और मोक्ष कल्याणक महोत्सव धूमधाम से मनाया गया। निर्यापक श्रमण मुनि श्री योगसागर जी महाराज एवं निर्यापक श्रमण मुनि श्री नियम सागर जी महाराज का मुनि दीक्षा दिवस धूमधाम से मनाया गया। इस अवसर पर प्रात: भक्तांमर महामंडल विधान, पूज्य बड़े बाबा का अभिषेक, शांति धारा एवं पूजन विधान हुआ, निर्वाण लाडू चढ़ाया गया। ज्ञान साधना केंद्र परिसर में निर्यापक मुनि श्री योग सागर जी महाराज एवं निर्यापक मुनि श्री नियम सागर जी महाराज का 45 वां मुनि दीक्षा दिवस मनाया गया। इस अवसर पर पूज्य बड़े बाबा एवं आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के चित्र का अनावरण, दीप प्रज्वलन हुआ। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का पूजन एवं आचार्य जी समय सागर जी महाराज का पूजन हुआ। मुनि श्री का पाद प्रक्षालन हुआ। शास्त्र समर्पण किया गया। इस अवसर पर पूज्य निर्यापक श्रमण मुनि श्री नियम सागर महाराज ने प्रवचन देते हुए कहा दीक्षा का आज पावन दिवस है जिसको दीक्षा कहते हैं वह आत्म कल्याण के क्षेत्र में संसारत सभी भव्य जीव को अनिवार्य हुआ करती है। दीक्षा अनिवार्य है दीक्षा का अर्थ मुक्ति और मुक्ति के लिए दीक्षा होती है।

गुरु के बिना जीवन का आरंभ नहीं

दीक्षा का अर्थ है छुटकारा विसर्जन है जिसको अज्ञान बस बटोर कर रखा था उन सब का विसर्जन और सबसे मुक्ति, मुक्ति के लिए मुक्ति और वास्तविक मुक्ति रत्नत्रय है। जिसकी साधना से जिसकी अनुभूति से आत्मा संतृप्त हो जाए वह आत्मा का भोजन कहलाता है। ऐसे भोजन को परोसने वाले परंपरा की दृष्टि से देखें तो परंपरा का अंत ही नहीं परोसते चले आ रहे हैं और भोजन करते-करते सभी चले आ रहे हैं। इस युग में हमको भी अपने भाग्य के वजह से इस व्यंजन को इस मधुर भोजन को परोसने से पहले भोजन के स्वाद का पता लगा लो वह कितना आनंददाई है वह कितना सुखदाई है वह कितना आत्मा को संतुष्टि पहुंचा सकता है। उस सब का परिचय करके सर्वप्रथम भटकती आत्मा को आकर्षित किया और आकर्षित करना ही धर्म की प्रभावना है। हमें कोई आकर्षण ना करें हमें कोई भोजन ना मिले यह संभव ही कैसे हम आकर्षित होते हैं। आकर्षित होने की शक्ति हमारे पास आकर्षित करने वाले निमित्त के रूप में जब आहार प्राप्त होते तो हमारा जीवन भी सार्थक हो जाता अनादि कालीन वह प्यास अनादिकालीन वह भूख मिट जाती। ऐसे भोजन को परोसने वाले इस पावन भूमि पर भरत क्षेत्र में इस धरा पर थे, हैं और रहेंगे। यह हम सोच भी नहीं सकते लेकिन जब सानिध्य प्राप्त हुआ तो है, थे और आगे भी यह परंपरा बनी रहेगी।

इस पर विश्वास हुआ भोजन करने से पूर्व भोजन का परिचय मिला वह भोजन ऐसा भोजन की पुन: भोजन ही ना करना पड़े हमेशा-हमेशा के लिए भोजन के बिना अनंत काल तक हम रह सकें। ऐसा भोजन एक बार भोजन करने के बाद अनंत काल तक हम भोजन के बिना रह सकते हैं। ऐसा भोजन का परिचय हमने सुना प्राप्त किया और उन्हीं के द्वारा एक-एक ग्रास जैसे मां अपने बच्चों को एक-एक ग्रास बड़े प्रेम के साथ भोजन कराती है। वैसे ही गुरु ने हमारे लिए भोजन कराया छोटे से बड़ा बनाया। भोजन ही नहीं करते तो बड़े कैसे बन सकते। भोजन के बिना तो सारा संसार छोटा है विकसित ही नहीं हो रहा गर्भ के काल से भोजन मिलना शुरू होता है। गुरु शिष्य को गर्भ काल से जब भोजन कराते हैं तो हमारा विकास तो गुरु के गर्भ से होता और हमारा जन्म गुरु के गर्भ से होता है। इसलिए कहते हैं गुरु के बिना जीवन शुरू नहीं हुआ। ऐसा सतगुरु का मिलना बहुत दुर्लभ होता है।

बाहर का मार्ग तो लाखों करोड़ों हैं लेकिन भीतर का मार्ग तो एक ही है। करोड़ मार्ग को बताने वाले बहुत मिलेंगे। पग-पग पर मिलेंगे लेकिन भीतर के मार्ग को बताने वाले दुर्लभ ही मिला करते है। मिल जाए तो भाग्य के द्वार खुल जाते हैं जीवात्माओं के। ऐसे गुरुवर हमको मिले उनके उपकार को शब्दों में बांधना और किसके सामने कहना मन को समझाना भी संभव नहीं है। जैसा नाम है उस नाम के अनुसार ही वचन है और वचनों को गुमफित करके शास्त्र बनाकर कलेक्शन करके गुरु के भोजन के रूप में हमको प्रदान किया। गुरु वाणी भगवान की वाणी है जो भगवान की वाणी हुआ करती है वही गुरु की वाणी होती है जो गुरु की वाणी होती है वही जिनवाणी कहलाती है। जिनवाणी भगवान से निकलती है गुरु के पास आती है और आगे बढक़र के शिष्य के पास पहुंचती है। वह वाणी जिनवाणी ही कहलाती है लेकिन जब गुरु के मुखारविंद से निकलती है तो वह जिनवाणी गुरुवाणी ही कहलाती है। बताइए जिनवाणी गुरु वाणी में अंतर क्या है अपने मुख से बोल ही नहीं सकते बोलते हैं तो जिनेंद्र भगवान की वाणी को ही बोलते हैं। गुरु वाणी संज्ञा पाकर हम तक पहुंचती है। जिनवाणी ही गुरु वाणी है और गुरु वाणी ही जिनवाणी है। जिनवाणी हम तक पहुंच जाएं हम सभी जीवों तक पहुंच जाए कहीं भी भोजन करने चले जाओ पेट ही नहीं भरता ऐसा भोजन क्यों करें उस भोजन का आविष्कार करें जिससे पेट भरता।

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