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संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के आचार्य पद पर 50 वर्ष पूर्ण होने पर विशेष लेख

संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के आचार्य पद पर 50 वर्ष पूर्ण होने पर विशेष लेख

 

आचार्यश्री शब्द का पर्यायवाची बन गए आचार्य विद्यासागरजी महाराज

लेखक – राजेन्द्र जैन ‘महावीर’, सनावद 

जैन समाज हो या जैनेत्तर समाज, सभी के बीच यदि ‘आचार्यश्री’ शब्द निकल जाए तो आम जनमानस के मन में एक ही छवि उभरती है- वह है आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज की। आमजन जिनकी एक झलक पाने को घण्टों लाइन में इंतजार करते हैं। अनेक सेलीब्रिटी, राजनेता उनकी चर्या अनुसार अपना कार्यक्रम सेट करते हैं, मीलों पैदल चलते हैं, एक मधुर मुस्कान के पीछे दीवाने हो जाते हैं, ऐसे आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के जीवन में आखिर ऐसा क्या है, यह जानने के लिए हमें अपनी चर्या के साथ उनका अभूतपूर्व साहित्य, जिसका उन्होंने मौलिक रूप से सृजन किया है, उसे पढ़ना बहुत आवश्यक है।

अनेक साहित्य कृतियों के साथ सैकड़ों दिगम्बर मुनियों व हजारों चैतन्य कृतियों के प्रेरणापुंज आपने जैन दर्शन के प्रति जो समर्पण किया है, वह स्तुत्य है, उसे शब्दों में लिखा नहीं जा सकता है। आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज ने उन्हें कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण पाया और 30 जून 1968 को दिगम्बर मुनि दीक्षा प्रदान की। तब कोई नहीं जानता था कि वे जैन धर्म के समर्थ आचार्य बनेंगे। आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज ने 22 नवंबर 1972 को मुनिश्री विद्यासागरजी को आचार्य पद प्रदान करते हुए स्वयं उनका निर्यापकत्व स्वीकार किया। यह घटना जैन इतिहास की अभूतपूर्व घटना है।

आचार्य पद व शिष्यत्व- दोनों पदों से न्याय करते हुए उन्होंने ज्ञानसागरजी महाराज की ऐसी सेवा की जो उन्हें मर्यादा शिष्योत्तम बनाती है। 2022 में आचार्यश्री विद्यासागरजी अपने आचार्य पद के 51वें वर्ष में प्रवेश कर रहे है जो हम सबका गौरव है।

55 वर्षों से दिगम्बरत्व का अनुशीलन कर ‘मूकमाटी’ जैसा महाकाव्य प्रदान करने वाले आचार्य विद्यासागरजी आज ‘आचार्यश्री’ शब्द का पर्याय बन गए हैं। यह उपलब्धि एक दिन की नहीं, लगातार 55 वर्षों तक दिगम्बरत्व की साधना की है। लगातार आचार्य पद पर 50 वर्षों की तपस्या के साथ अपनी चर्या के प्रति न्याय की पराकाष्ठा है जो उन्हें जगतपूज्य ‘आचार्यश्री’ बनाती है।

 

सक्षम गुरु के समर्थ शिष्य -आ.विद्यासागरजी

दिगम्बर जैन धर्म की अनादिकालीन परम्परा में दिगम्बर साधु का स्वरूप, उनकी चर्या, उनका आचार-विचार आदि सभी पर विस्तृत वर्णन देखने को मिलता है। वर्तमान युग उस वर्णन को पढ़कर अपनी बुद्धि, विवेक से मूल्यांकन करता है, सबके अपने-अपने तरीके होते हैं। वस्तु का स्वरूप समझाने वाले जैन दर्शन में सबसे पहले कहा जाता है कि सबसे पहले स्वयं को देखो, स्वयं को समझो तभी आप इस जैन दर्शन व संसार को समझ सकते हो।

10 अक्टूबर 1946 शरद पूर्णिमा की रात्रि में जन्मे विद्याधर के बारे में जब हम पढ़ते हैं तो हमें बड़ा आश्चर्य होता है, वर्तमान समय का ऐसा परिवार जहां एक को छोड़ सारे के सारे दिगम्बर पथ के अनुयायी हुए हो, ऐसा देखने सुनने को नहीं मिलता।

कन्नड़ भाषी ‘विद्याधर’ वास्तव में विद्याधर थे जिन्होंने अपने गुरु आचार्य ज्ञानसागरजी के कथन ‘‘पढ़ लेना, तुम भी पढ़ लेना, अभी तक पढ़ने वाले तुम्हारे जैसे कई ब्रह्मचारी और भी आये हैं, लेकिन सब पढ़कर चले गए। रुका कोई नहीं ।’’

अपने गुरु का यह कथन सुनकर जीवन में कुछ करने निकले विद्याधर ने अपना संकल्प इस तरह

व्यक्त किया कि ‘‘मैं आज से जीवन पर्यन्त वाहन/यान आदि सभी आवागमन के साधनों का त्याग करता हूं, जितना चलूंगा अब आपकी आज्ञा से आपके पीछे पीछे ही चलूंगा। अपनी कृपा बनायें।’’

इतने कठोर संकल्प को दृढ़ निश्चय के साथ सहज में ले लेने वाले आज संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज लोकपूज्य हैं। जैन दर्शन की आन-बान-शान हैं। यह संकल्प न केवल गुरु के प्रति निष्ठा को प्रदर्शित करता है। बल्कि यह संदेश देता है कि यदि जीवन में कुछ भी पाना है तो गुरुशरण में समर्पित हो जाओ, सौदेबाजी मत करो। समर्पण में इतिहास बनता है, सौदेबाजी समाप्त कर देता है।

1969 से नमक, बूरा, शक्कर त्याग दिया

 

स्वर्ण के समान चमकने वाले गुरुवर आचार्यश्री दीक्षा के एक वर्ष बाद ही नमक, बूरा, शक्कर के त्यागी हो गए। यह उनके दिगम्बरत्व के प्रति निष्ठा व समर्पण का परिचायक है। आपने 1985 में चटाई का भी त्याग कर दिया। साथ ही 1994 में सभी वनस्पतियों को त्याग कर अलौकिक संत बन गए। आपको देखकर अनेक श्रावक-श्राविका बिना कहे त्याग करने को आतुर हो जाते हैं। आपकी मधुर मुस्कान के दीवाने युवा अपना सब कुछ (संसार की भाषा में) छोड़कर अपना ही सब कुछ (आत्मज्ञान) पाने को दिगम्बरत्व स्वीकार कर लेते हैं।

 

साहित्य के शिरोमणि हैं आचार्यश्री

 

75 से अधिक समर्थ कृतियों को जन्म देने वाले आचार्यश्री साहित्य के शिरोमणि हैं। कन्नड़, मराठी, बांग्ला, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, अंग्रेजी के कुशल अध्येता ने जब कलम चलाई तो जो निकला वह नवनीत आज भी जन-जन के अधरों पर है। आचार्य विद्यासागरजी महाराज ऐसे पहले आचार्य हैं जिनके साहित्य, व्यक्तित्व, कृतित्व पर लगभग सौ से अधिक पीएचडी की गई है।

 

आपके द्वारा रचित ‘मूकमाटी’ महाकाव्य तो विश्वविद्यालयों के कोर्स में सम्मिलित होकर अनेक अध्येताओं का प्रिय विषय रहा है । वे ‘मूकमाटी’ में कहते हैं- ‘राख’ का उलट ‘खरा’ होता है व ‘राही’ का उलट ‘हीरा’ होता है। ये उनकी अभिव्यक्ति अनेकजनों को ‘खरा’ बनाने व ‘हीरा’ बनाने की ओर अग्रसर करती है।

 

बुन्देलखण्ड के जन-जन में विद्यासागर

 

आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज की प्रिय भूमि बुन्देलखण्ड व मध्यप्रदेस ही रही है। आचार्यश्री से जब पूछा गया कि आप बुन्देलखण्ड में क्यों ज्यादा रहते हैं तो उन्होंने कहा कि आप अपनी दुकान कहां खोलना चाहेंगे तो उत्तर आया कि जहां ग्राहक ज्यादा हों तो आचार्यश्री ने कहा कि बुन्देलखण्ड में हमारे ग्राहक ज्यादा हैं इसलिए हमें बुन्देलखण्ड प्रिय है। बुन्देलखण्ड के प्राचीन तीर्थ द्रोणगिरि, नैनागिरिजी, आहारजी, पपौराजी, कुण्डलपुर आदि ऐसे तीर्थ हैं जो घनघोर जंगल में हैं।

आचार्यश्री की पसंदीदा जगह थी नैनागिरिजी की सिद्धशिला को ‘मूकमाटी’ पूर्ण कराने का सौभाग्य प्राप्त है। प्रकृति प्रिय आचार्यश्री के सबसे ज्यादा शिष्य आज भी बुन्देलखण्ड के ही हैं जिन्होंने आचार्यश्री के प्रति अपना सब कुछ समर्पित किया है। ग्राम-ग्राम, गली-गली जैन जैनेत्तर समाज में आचार्यश्री की एक मुस्कान के पीछे बुन्देलखण्ड दीवाना बना हुआ है।

 

मांस निर्यात विरोध व गौशाला के प्रेरक

मांस निर्यात के विरोध में आवाज उठाकर सबसे पहले पशुओं के संरक्षण की आवाज आचार्यश्री ने पुरजोर तरीके से उठाई व गौशालाएं खोलने का आह्वान किया। देश में सैकड़ों गौशालाएं आचार्यश्री के आह्वान पर संचालित हैं। मध्यप्रदेश सरकार ने तो आचार्यश्री विद्यासागर गौ संवर्धन बोर्ड का गठन किया है जिसके तहत गायों का संरक्षण किया जाता है। गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों को अनुदान व गाय प्रदान की जाती है। बीनाबरहा में ‘‘शांतिधारा’’ दुग्ध योजना एक महत्वपूर्ण योजना है। आचार्यश्री ने जहां मांस निर्यात का विरोध किया, वहीं उसके उपाय बताते हुए गायों के संरक्षण के कारगर उपाय प्रस्तुत किये जो लाखों-करोड़ों जीवों के प्रति करुणा का कारण है। धन्य हैं ऐसे युग प्रवर्तक आचार्यश्री।

 

संस्कारों के साथ हिन्दी और आयुर्वेद के हिमायती

बच्चों में संस्कृति के संस्कार प्रवाहमान हों, इस हेतु प्रतिभास्थली जैसी संस्थाओं का गठन व ‘इण्डिया नहीं भारत कहो’ हिन्दी बोलो, हिन्दी के संरक्षण के प्रयास आचार्यश्री की दूरगामी सोच को प्रदर्शित करती है। भारत सरकार द्वारा जारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अध्यक्ष श्री के कस्तूरीरंगन द्वारा शिक्षा नीति के बारे में आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के सुझावों को शामिल किया गया। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में मातृभाषा में शिक्षा को प्रधानता दी गई है जिसमें आचार्यश्री का मातृभाषा अभियान सार्थक हुआ है। पूर्णायु आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय के माध्यम से भारतवर्ष की प्राचीन चिकित्सा पद्धति को बढ़ावा देने के साथ प्रतिभा स्थली के माध्यम से अनेक प्रतिभाओं को समुन्नत बनाने का कार्य हो रहा है। राष्ट्रकल्याण की सार्वभौमिक सोच रखने वाले दूरदृष्टा आचार्यश्री को सादर नमन है।

हथकरघा से अहिंसा का शंखनाद

आचार्यश्री ने हथकरघा उद्योग को प्रोत्साहित कर अहिंसा से आजीविका को जोड़ा है। आज अहिंसा का शंखनाद हथकरघा उद्योग से कर भारत को एक नई दिशा प्रदान की है जो संपूर्ण देश में अच्छा प्रतिसाद दे रही है। आज इस योजना से हजारों हाथ जुड़े हैं व तेजी से इस अहिंसक योजना को आमजन स्वीकार कर रहे हैं। ऐसे युग प्रवर्तक आचार्य भगवन ने अब तक 120 मुनिदीक्षा, 172 आर्यिका दीक्षा सहित कुल 443 दीक्षा प्रदान की हैं। सैकड़ों बाल ब्रह्मचारी भैया, दीदी, प्रतीक्षा में हैं। लाखों श्रावकों ने अनेक प्रतिमा धारण की है, त्याग मार्ग को स्वीकार किया है। ऐसे आचार्यश्री की कुछ प्रेरक कथन-

 जब तक ‘देह’ के प्रति ‘नेह’ है तब तक ‘गेह’ भी है, जब तक ‘नेह-ंगेह’ है तो संदेह भी है, और जब तक ‘संदेह’ है तब तक ‘विदेह’ नहीं हो सकता।

 ‘वेतन’ वाले ‘वतन’ की ओर कम ध्यान दे पाते हैं, और ‘चेतन’ वाले ‘तन’ की ओर कब ध्यान दे पाते हैं।

 तुम दिन रात बच्चों का ही नाम लेते रहते हो, इसलिए बच्चों वाले ही बने रहते हो।

 एक में ‘शांति’ है अनेक में ‘अशांति’ है, इसलिए एक (आत्मा) का ही चिंतन करें।

 ‘मिथ्या दृष्टि’ की भक्ति का लक्ष्य ‘पद प्रतिष्ठा’ होती है।

 ‘सम्यकदृष्टि की भक्ति का लक्ष्य ‘मुक्ति’ होती है।

 एक किनारे से दूसरे किनारे पर जाना आसान है लेकिन मझधार से किनारे पर जाना बहुत मुश्किल है।

 विवेकी खड़े-खड़े घर से निकल जाते हैं, और अविवेकी (अज्ञानी) को निकाल दिया जाता है।

 धर्म की शुरुआत मंदिर से नहीं, घर से होती है।

 बड़ी विडम्बना है, पशुओं के अंदर तो इंसानियत आ रही है, लेकिन मनुष्यों में पशुता आ रही है।

 भले ही उपवास-एकासन न हो सके तो मत करना लेकिन किसी प्राणी के प्रति दुराभाव नहीं करना।

जगत के उपकारी संत के रूप में वे आज संत शिरोमणि हैं, अनेक उपाधियॉं उनके आगे इसलिए बौनी हो जाती हैं क्योंकि वे मानते हैं कि ये उपाधियां ‘व्याधियॉं’ हैं। अपने गुरु द्वारा प्रदत्त उपाधि के साथ न्याय करते हुए वे अपने आचार्य पद को इतना प्रतिष्ठित किए हुए हैॆ कि किसी के मुख से यदि ‘आचार्यश्री’ शब्द निकले तो मन-मस्तिष्क में आचार्यश्री विद्यासागरजी की छवि ही ध्यान आती है, ऐसे महान आचार्य का चातुर्मास जब मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में हुआ तो म.प्र. के मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान सहित उनका पूरा मंत्रिमण्डल उनकी अगवानी में कई किलोमीटर नंगे पैर कमण्डल थामे चला और भोपाल का वह चातुर्मास इतिहास के स्वर्णाक्षरों में लिखा गया जब भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी अपने अनेक मंत्रियों के साथ आचार्य संघ के दर्शन को पहुंचे थे। उल्लेखनीय है कि म.प्र. की प्रमुख राजनेता, पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती जी ने आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज का शिष्यत्व स्वीकार कर उनके मार्गदर्शन में परिवार का त्याग किया है व उमा भारती दीदी नाम पाया है जो सिद्ध करता है कि आचार्यश्री जैन ही नहीं, जन-जन के राष्ट्रसंत हैं जिनका अभूतपूर्व त्याग, तपस्या उनके मुख मण्डल पर स्पष्ट दिखाई देता है।

उनका मुखमण्डल देखकर आज भी अनेक प्रश्नों का समाधान हो जाता है। ऐसे युग प्रमुख आचार्य विद्यासागरजी ने अपने जीवन के 55 वर्षों से अधिक दिगम्बर मुनि के रूप में पूर्ण कर चुके हैं। हमारा यह सौभाग्य है कि हम उस युग में जन्मे हैं जिसमें हमें प्रत्यक्ष रूप से उनका आशीर्वाद प्राप्त हुआ है। अंत में आचार्यश्री का एक कथन –

‘‘दुनिया को समझाना बहुत आसान है अपने आपको समझाना बहुत कठिन है ।’’

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