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ज्ञान की बात,आपके साथ : जानिए,जैन तीर्थंकरों की बात

 

आज पढ़िए, धरियावद की नैना चन्द्र प्रकाश जैन के विचार

जानिए,जैन तीर्थंकरों की बात

” जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकर होते हैं। इनकी संख्या नियत है । न कभी कम, और न कभी ज्यादा । एक काल में चौबीस ही होते हैं । दुषमा -सुषमा काल में तीर्थंकर होते हैं । भगवान के लिए तीर्थंकर शब्द मात्र जैन धर्म में ही उपयोग किया गया है अन्य धर्म में ऐसा नहीं है । जो संसार सागर से स्वयं तिरते हैं और दुसरों को तारते हैं उन्हें कहते हैं ‘तीर्थंकर’ । इनके पांच कल्याणक होते । इनका पुनः जन्म नहीं होता है । भरत क्षेत्र में अभी आदिनाथ से लेकर महावीर भगवान तक 24 तीर्थंकर हुए हैं । अजितनाथ भगवान के समय ढ़ाई दीप में 170 तीर्थंकर एक साथ हुए थे । तीर्थंकरों की प्रतिमा की पहचान उनके चिह्नों से होती है । जैसे आदिनाथ भगवान का बैल ,पार्श्वनाथ भगवान का सर्प और महावीर भगवान का सिंह चिन्ह है । इसी प्रकार अन्य तीर्थंकरों के भी चिन्ह हैं । तीर्थंकर भगवान गर्भ में आते हैं उसके 6 महीने पहले और 9 महीने गर्भ में दौरान सौधर्म की आज्ञा से माता-पिता की आंगन में 15 महीने तक कुबेर रत्नों की वृष्टि करते हैं । यह रत्न वृष्टि दिन में तीन बार होती है । एक बार में 3:30 करोड़ रत्न की वृष्टि होती है । गर्भ में आने से 6 महीने पहले और 9 महीने गर्भ के इस प्रकार 15 महीने तक सौधर्म इंद्र की आज्ञा से अष्ट कुमारी देवियां माता की सेवाएं करती हैं । तीर्थंकर का जब जन्म होता है, उस समय स्वर्ग में सौधर्म इंद्र का आसन कम्पायमान होता है एवं चारों प्रकार के निकायों के देवों के यहां क्रमशः भेरि,शंख,सिहननाद,घंटें बजते हैं । भगवान का जन्माभिषेक पांडूक शिला पर 1008 कलशों से क्षीर सागर के जल से होता है । उसी समय भगवान के दाहिने पैर के अनूठे पर सौधर्म इंद्र को सबसे पहले जो चिन्ह दिखाई देता वहीं चिन्ह उनका नियत हो जाता है ।”

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